पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/२२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( २१२ )

एक भव शूल आयो मेटिवे को तेरे कूल तोहि तो

त्रिशूल देत बारि ना लगत है॥"

गौड़वोले बोले―

"जय से जन्म भयो पृथ्वी पर कभी न हरि को नाम लियो।
सेवा की नहिं मात पिता की साधुन को नहिं काम कियो।
हरो बहुत धन ठग ठग के नहीं हाथ से एकहु दाम दियो।
कियो बहुत विष पान अमृत को एकहु बेर न जाम पियो।
कैसे बचिहौं काल से मैं अब कौन छुटहिहै मोहिं यम से।
मैं पापी तुम तारन वारी बनिगे पाप बहुत हम से।
वेद पुराण बखानत निशि दिन अधम पापियों को तारा।
किया बहुत संग्राम काल से और यमदूतों को मारा।
सुनी बात यह श्रवण में मैंने किये पाप अपर पारा।
बनिहैं और बहुत से अघ देखौं कैसे हो निस्तारा।
अब तो यही लड़ाई ठानी गंगा जी मैं तुम से।
मैं पापी तुम तारनवारी बनिगे पाप बहुत हम से।"

इस तरह जिस समय ये चारों गंगा जी की स्तुति कर रहे थे, गंगास्तवन गा गा कर प्रसन्न होते जाते थे बूढ़े भगवानदास और उसकी गृहिणी चौधार आँसू रो रहे थे। इनकी प्रेमविह्वलता देख कर ये चारों भक्ति में, प्रेम में मग्न हो गए। इनकी आँखों में से आँसू बहने लगे और जब तक तख्ते पर बैठे हुए जंगी महाराज ने एक ललकार मार कर न चिताया ये अपना आपा भूल गए। उसके मुख से