पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/२२९

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सीधे दबाए और टेंट में तीन चार रुपए खोसे घर पहुँचता था। इस पर पाठकों को अधिकार है कि वे दोनों में से किसी को पंडित समझ लें किंतु लोगों का खयाल यही था कि जिस से टका ही न कमाया जाय वह विद्या क्या और इसलिये समस्त प्रयागवासी नहीं तौ भी दारागंज में तो घुरहू अवश्य विद्या- वारिधि समझा जाता था और अपने पति की ऐसी प्रशंसा सुन सुन कर उसकी पंडितायिन नित्य उठकर बलैयाँ लिया करती थी, नजर लग जाने के डर से कभी तिनके तोड़ा करती और कभी उन पर लाल मिरचैं सात बार बार कर चूल्हे में जला दिया करती थी।

श्राद्ध की सामग्री पहले ही से जुदी जुदी मँगवाई गई थी। ब्राह्मणों के लिये खोवे के पिंड और श्रुद्रों के लिये जौ के आटे के। गोड़बोले महाशय ने शास्त्रविधि से दोनों भाइयों को एकतंत्र से पार्वण श्राद्ध करवाया। पंडित और पंडितायिन जिस समय इस कार्य में लगे तब प्रियंवदा ने आँखों में पानी लाकर देवर से कहा कि अभी देवरानी भी साथ होती तो पूरा आनंद आता और देवर जी ने "ॐ! होगा" कहकर यों ही इस बात को टाल दिया। श्राद्ध करते समय पिंडों का पूजन करने के अनंतर जब मध्यपिंड को सूँधने का समय आया तब पंडित जी ने उसे नाक से लगाकर आँखे बंद करलीं। कोई पाँच मिनट तक निश्चेष्ट होकर यों ही वे बैठे रहे। फिर उन्होंने गंगाजी की और आँख भर कर देखा। उनके मुख के भाव से