पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/२३०

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ऐसा मालूम हुआ मानो वे किसी मूर्तिमती को निहार रहे हैं, थोड़े देर तक उन्होंने पलकें न डालीं और तब फिर आँखें बंद करके वे आँसू बहाने लगे। इसका मतलब न तो प्रियंवदा ही ने समझा और न कांतानाथ के कुछ ध्यान में आया। हाँ अंत में पंडित जी के "हे माता।" कहकर हाथ जोड़ने और गौड़बोले के―"आपका काम सिद्ध समझो।" कहने का मतलब प्रियंवदा ने तो यह लगाया कि "गंगा माता पुत्र प्रदान करेंगी" और कांतानाथ समझा कि "माता की प्रेत योनि छूट जायगी।" किंतु बहुत खोद खोद कर पूछने पर भी दोनों ने दोनों को नहीं बतलाया कि इस बात का असल मत- लब क्या था।

दरिद्री गौड़बोले के लिये केवल एक ही यजमान था इसलिये इस तरह लंबा चौड़ा श्राद्ध कराकर यह तीन घंटे लगादे तो लगा सकता है किंतु घुरहू पंडित यदि एक यजमान को एक ही श्राद्ध कराने में तीन का आधा डेढ़ घंटा भी लगावे तो न तो उसे कल से जंगी महाराज ही घाट पर बैठने दे और न आज से जोरू ही घर में घुसने दे। खाने के लिये मुट्ठी भर चने देना तो कहाँ? यदि घर ले जूते मार कर न निकाल दे तो उसकी कृपा समझो। खैर! जंगी गुरु के कम से कम तीस चालीस यजमान इकट्ठे हुए। कोई कहीं का ब्राह्मण और कोई कहीं का भाट। जाट गूजर, काछी, कुरमी, नाई, तेली "सब धान बाइस पसेरी। "कहीं की ईंट]]