देकर जहाँ तक बन सका उन लोगों से जोत जुताकर उनकी पीठ ठोंकते हुए सुफल बोल दी। बस इसके बाद भिखारियों ने इनकी क्या दशा की सो कहने की आवश्यकता नहीं। हाँ! पंडित जी की सिफारिश से भगवानदास और भोला का जल्दी छुटकारा हो गया और गुरु जी ने उनको बहुत तंग भी न किया।
इस जगह एक घटना अवश्य हो गई। घटना यह कि इन यात्रियों में से एक शौकीन ने मस्तक पर लगाने के लिये चंदन माँगा। यद्यपि चंदन वहाँ मौजूद था परंतु घिसने के परिश्रम से बचने के लिये गुरुजी ने उसे थोड़ी सी गंगा की माटी दे दी। यात्री इधर उधर से उसे देख कर बोला―"अरे महाराज! यह तो मृत्तिका है। चंदन देओ।" गुरुजी झट बोल उठे―"गंगाजी की मृत्तिका चंदन करके मान!" उसने "ठीक" कह कर उसी से तिलक लगा लिया। थोड़ी देर में जब गोदान के संकल्प का अवसर आया और गुरुजी ने प्रत्यक्ष गाय दिखा कर प्रत्यक्ष गोदान का आग्रह किया तब झटपट वह अपनी जगह से उठ कर एक मेंढक पकड़ लाया। लाकर वह उसे गुरुजी को थँमाते हुए बोला "लीजिए प्रत्यक्ष गोदान।" देखते ही गुरुजी झल्लाए। वह आँख दिखा कर कहने लगे―"क्या दिल्लगी करते हो?" बत इस पर उसने कहा―"नहीं महाराज! दिल्लगी नहीं! गंगाजी का मेंढ़की गैया करके मान।" इस पर एक बार एक दम सब हँस पड़े, फिर पंडितजी ने उसे बहुत फटकारा और