प्रकरण―२२
व्यभिचार में प्रवृत्ति।
"आ बहन! अच्छी तरह तो है? आज बहुत दिनों में दिखलाई दी!"
"तेरी बला से! अच्छी हूँ तो तुझे क्या और बुरी हूँ तो तुझे क्या? तू अपनी करनी में कमी कसर न रखियो। जी तो यही चाहता है कि उमर भर तेरा मुँह न देखूँ? पर तेरी विपत्ति सुनकर मन ने नहीं माना। इस लिये झख मार कर आना पड़ा। ले अब सुखी रहना। मैं जाती हूँ।"
"हैं हैं! बहन! जाओ नहीं। तू ही तो मेरी विपत्ति की साथिन और तू ही मुझे ऐसे निराधार छोड़ कर जाती है। मैं तेरे पैरों पड़ती हूँ। न जा। मैं तेरे सिर की सौगंद खाती हूँ। मैंने तेरा कुछ नहीं बिगाड़ा। जो मैंने बिगाड़ा हो तो अभी मुझ पर गाज पड़ै।"
"अरे निरी बच्ची है! अभी दूध पीती है! तैने नहीं बिगाड़ा तो क्या आस्मान से आकर राम जी बिगाड़ गया। कई जगह भटकते भटकाते अंत में वहाँ सिर मारा था पर तैने सत्यानाश कर दिया। मैं तीन वर्ष तक किस की होकर रहूँगी? क्या तेरे हाड़ खा कर जीऊंगी, तिस पर नन्हीं कहती है कि मैंने कुछ नहीं बिगाड़ा!"