अपनी बहन का सुख धूल में मिला दूँ। तेरे लिये मेरा सिर हाजिर है। मेरी प्यारी सखी, मैं सौंगंद खाकर कहती हूँ, तेरे पैरों में माथा रख कर कहती हूँ। तू मुझे मार चाहे निवाज। मैंने जान बूझ कर नहीं किया।" इस तरह कहते हुए उसने आनेवाली के पैरों में सिर दे दिया। "हैं हैं! प्राणप्यारी बहन, मुझे तेरा भरोसा है। तू कभी मेरे सामने झूठ नहीं बोलेगी। मैं अपने सुहाग की सौगंद दिला कर कहती हूँ। तू घबड़ा मत। जो रामजी भी मुझ से आकर कहें तो न मानूँ कि तैंने किया हो" कहते हुए उसने उसे अपनी छाती से लगा कर अपनी आँचल से उसके आँसू पोंछे। पोंछते पोंछते उसके गोरे गोरे गालों पर हाथ फेर कर― "हाय! हाय! यह फूल सा मुलायम मुँह, यह चाँद सा गोरा चेहरा! मुरझा गया। आग लगे मेरी समझ पर। मैंने नाहक अपनी प्यारी बहन को सताया। माफ करियो बहन! क्षमा करियो।" कह कर उसने उसके दोनो गाल चूम लिए और बदले में उसने उसके चूमे। यों दोनों का झगड़ा मिट कर दोनों फिर एक की एक।
इसके अनंतर सुखदा ने आदि अंत तक जो अपना दुखड़ा रोया उसका बहुत हिस्सा गत प्रकरणों में आ चुका है। मथुरा ने सुन कर जो सहानुभूति दिखलाई उसको लिख कर विस्तार करने की आवश्यकता नहीं। हाँ मथुरा सुखदा का बयान सुन कर मान गई। माने चाहे न माने।