पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/२३९

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भी नहीं जानती। बस उसे धोखा दे कर जिसके हाथ पड़ता है वही ले जाता है। हमारा वह निपूता नौकर, बड़ा सच्चा बनता था, पीतल का गहना रख कर दो तीन हजार रुपए ले गया और अब कहते हैं तो आँखें दिखलाता है। रहा सहा चोरी में चला गया। बस बही ढाक के तीन पात। जो मेरा निज का था तो उन्होंने छीन लिया अब फूँक कर चबाने के लिये मुट्ठी भर चने तक नहीं। जहर खाने तक को एक पैसा नहीं रहा। हाय! अब मैं क्या करूँगी? जिंदगी कैसे तै होगी? मुझे बड़ा सोच है। इस फिक्र ही फिक्र में यह देख! मेरा आधा डील रह गया! (छाती में एक घूँसा मार कर रोती हुई) हाय मैं किस से कहूँ? क्या भले घर की बहू बेटी हो कर भीख माँगूंगी? लुगाई के लिये सब को बढ़ कर सहारा उसके लोग का होता है। सो उस निपूते ने भी मुझे निकाल दिया। हाय मैं क्या करुँ?"

"हैं हैं! बहन रोती क्यों है? (उसका हाथ पकड़ कर दूसरा घूँसा रोकती हुई) तुझे रोती देखकर मुझे भी रोना आता है। यह निपूता मेरा स्वभाव ही ऐसा है। दूसरे की दई देखकर मेरा कलेजा फटने लगता है। बहन! रोवै मत! जब तक मैं जीऊँगी तुझे दुःख नहीं पावे दूँगी। मैं मजूरी कर के लाऊँगी, हजार बहाने से लाऊँगी पर तेरा पेट भरूँगी। तू घबड़ा नहीं।"

"मेरी प्यारी बहन (गले लगाकर) तेरा ऐसा ही भरोसा