पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/२४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( २२८ )

जहाँ तेरा पसीना पड़े वहाँ अपना खून डालने को तैयार हूँ। मेरी लाडली! तू दुःख मत पावे। बस मेरा तो एक बार― नहीं हज़ार बार यही कहना है कि तू मान जा।"

इसके उत्तर में न मालूम "हाँ" कहती अथवा "न" सो अभी नहीं कहा जा सकता। इन दोनों की आज की बात चीत से, ग्यारहवें प्रकरण की छेड़ छाड़ से, हँसी दिल्लगी से अभी तक यह नहीं कहा जा सकता कि सुखदा का सतीत्व बिगड़ गया। उसकी अभी तक की चाल ढाल से इतना अवश्य मालूम होता है कि वह चिड़चिड़े स्वभाव की थी। माता के दुलार ही दुलार में पड़कर एकलौती बेटी माथे चढ़ गाई थी। मथुरा की कुसंगति से वह पहले ही कडवी करेली और फिर नीम चढ़ी। एक भले घर की बहू और दूसरे भले घर की बेटी के मन में यदि इतने भी विचार पैदा हुए तो मानो गजब हो गया। यह केवल मंथरा मथुरा, कुटनी मथुरा की कुसंगति का परिणाम है। इसमें दोष कांतानाथ का भी है। वह यदि मथुरा को अपने घर में न आने देता, उसका आवा- गमन प्रारंभ होने से पहले ही निश्चय कर लेता तो सुखदा हजार बुरी होने पर भी आज उसके मुँह से ऐसे शब्द न निकलते। परंतु इसके भोले मन को मथुरा की चिकनी चुपड़ी बातों ने भुला दिया। उस दुष्टा ने पहले पति पत्नी में कलह कराकर उसको वहाँ से उवाटा, उसने अपने खसम को सिखा कर सुखदा का सर्वस्व लूट लेना चाहा और वही