पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/२४३

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जाने से अब उस पर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा तब सुखदा की सा पहली सी नहीं रही थी। अब उसने समझ लिया था कि इन सब अनर्थौं की जड़ मैं ही हूँ। बस इस समझ में वह दिन रात शेती पछताती और बार बार अपने आपे को कोसा करती थी। किंतु सुखदा पर अभी जवानी का भूत चढ़ा हुआ था। पति के रूठ जाने, पिता के चले जाने और अपना तथा माता का सब धन लुट जाने पर भी अपने बनाव सिंगार के सिवाय उसे कुछ मतलब नहीं। उसके ख्याल से ससुराल में समस्त दोषों का भार पति पर और जेठानी पर था और पीहर में पिता ही दोषी थे। सारी दुनिया रूठ जाने पर भी एक रामजी न रूठने चाहिएँ और यह राम जी उसके लिये मथुरा के सिवाय कोई नहीं था।

उसकी माता चाहे दुःख के मारे सूख कर काँटा हो गई तो क्या? उसके बार बार सवाल करने पर सुखदा ने अपना मुँह फुला कर उससे कह ही न दिया―"तुझे मेरे दुःख से क्या मतलब? जब से चाचाजी गए हैं तू तो सुख के मारे फूल कर कुप्पा हुई जाती है।" दुलारी बेटी का ऐसा प्यार देख कर माता ने अपना करम ठोक कर रो दिया।