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प्रकरण―२३

बच गई।

गत प्रकरण की घटना से पाठक पाठिकाओं को निश्चय हो गया होगा कि माता का दुलार बालकों का जीवन बिगाड़ देता है। सुखदा की माता ने इसका कभी मन मैला न होने पावे इस विचार से अपनी हथेली थुँकवाया, उसने लाड़ चाव के लिये बेटी को माथे चढ़ा लिया और सुखदा के ऊधभ करने पर, उसके ऐबों पर और उसकी बुराइयों पर जब उसका पिता नाराज होता, मारने लगता अथवा फटकारता, धम- काता तब यह अपनी इकलौती बेटी का पक्ष करके पति से लड़ती। बस इसी का संक्षेप से वह परिणाम हुआ जो गत प्रकरण में लिखा गया है। हुआ वही जो वृंदावनविहारी ने अपनी गृहिणी से कह दिया था। बेटी की ढिठाई, उसकी बुराई, उसकी जिह, उसका बिगाड़, उसका चिड़चिड़ापन और उसका लड़ाकापन देख कर उन्होंने अपनी घरवाली से कह दिया था कि "तू इसे माथे चढ़ाती है तो चढ़ा। तू लाड़ में आकर मेरा कहना नहीं मानती है तो न मान। यह तेरे ही मुँह पर न थूकै तो मेरा नाम फेर देना। जो रहेगा सो देखेगा। मुझे क्या! मैं तो कुछ वर्षों का मेहमान हूँ।"

सुखदा की माता का नाम प्रेमदा था किंतु प्रेम उसके पास