पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/२४८

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का हियाव नहीं और फिर बेटी का ढंग इसका हाथ पकड़ कर रोक देता है कि तेरे मरते ही निरंकुश होकर यह दोनों कुलों की लाज धूल में मिला देगी, क्योंकि जरा सा मेरा काँटा है सो भी निकल जायगा।

जिस मनुष्य पर विपत्ति पड़ती है उसकी रक्षा करने के लिये परमेश्वर उसे धैर्य भी दे देता है। इतना दुःख पड़ने पर भी वह घबड़ाई नहीं है। वह विपत्ति की चक्की में पिस कर चाहे सूखी जाती है किंतु रातों की नींद खोने पर भी वह दिन रात इसी उधेड़ बुन में लगी रहती है कि क्योंकर सुखदा की रक्षा की जाय। वह कई बार सोचती है कि "मथुरा की चोटी पकड़ कर घर से निकाल दूँ, क्योंकि न रहेगा बाँस और न बजैगी बाँसुरी।" किंतु वह अब रोग को असाध्य समझने लगी थी। उसे डर था कि मथुरा को निकालने के उद्योग में कहीं मैं ही कान पकड़ कर घर से न निकाल दी जाऊँ। घर में कुछ न बचने पर भी जो कुछ बचा खुचा था उसे चुरा चुरा कर सुखदा मथुरा को दे दिया करती थी और जो कुछ पाती उसे बेंच खोंच कर दोनों खाने पीने में उड़ा दिया करती थीं। प्रेमदा ने मथुरा को पकड़ कर चोरी के इल- जाम में फँसा देना चाहा परंतु घर की फजीहत होने के डर से उसकी ऐसा काम करने की हिम्मत न पड़ी। उसने सारे समाचार लिखकर दामाद को इस विपत्ति से उद्धार पाने के लिये बुलाना चाहा किंतु वह पढ़ी लिखी नहीं, दूसरे को