पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १६ )

थे अब मैं मास्टर (मालिक) भी बन गई! अहा! मैं मालिक किस की?"

"हमारी?"

"नहीं! आप की तो दासी। आप मालिक और मैं मालिकिन!"

अच्छा"!

"अच्छा नहीं! अकेले घर में पड़े पड़े मेरा जी नहीं लगता है। आप इधर उधर घूम कर सैर कर आते हैं और मैं घर में पड़ी पड़ी सड़ा करती हूँ। तीर्थयात्रा के लिये आपने जो प्रण किया था उसे याद करो, जिसमें धर्म का धर्म और सैर की खैर हो। आप को गया श्राद्ध भी करना है। परमेश्वर करे पूर्व पुरुषों के पुण्य से ही हमारी मनोकामना पूर्ण हो। आप का कर्तव्य भी है और आप कहा करते हैं कि-"मैं कर्तव्य- दास हूँ।"

"हाँ ठीक है! परंतु जो मन चंगा तो कठौती में गंगा। आज कल पहले की सी तीर्थयात्रा नहीं रही। जगह जगह कष्ट, जगह जगह ठग उचक्के उठाईगीरे और अत्याचार, अना- चार है।"

यदि ऐसा भी हो तो क्या इन्हें सुधारने का आप को प्रयत्न न करना चाहिए?

"प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। चलेंगे और शीघ्रही चलेंगे। सैर भी होगी और पितृऋण से भी मुक्ति। संसार