पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १७ )

में यदि श्राद्धादि न होते तो माता पिता के चिर वियोग के बाद उनके असंख्या उपकारों का बदला ही क्या था? श्राद्धों से पर- लोक के पुण्य के सिवाय उनकी याद आती है, उनका अनुकरण करने का, उनके उपदेश पर चलने का स्मरण होता है और सब "पितृस्वरूपी जनार्दनं प्रीयताम्"।

"हाँ! यही बात है और फिर तलाश करने पर यदि मिल जाँय तो महात्माओं के दर्शन, तीर्थों का स्नान और भगवान की भक्ति।"

श्रीमती प्रियंवदा और पंडित प्रियानाथ को परस्पर प्रेम संभाषण के साथ इस तरह तीर्थयात्रा का मंतव्य स्थिर हुआ। किस किस तीर्थ में और कब जाना तथा किसे साथ ले जाना और किसे घर की रखवाली पर छोड़ जाना इन सब बातों का ठहराव हो गया। पंडित जी अंगरेजी, हिंदी और संस्कृत साहित्य के साथ गुजराती, मराठी और उर्दू के सिवाय ज्योतिष और कर्मकांड से भी अच्छी जानकारी रखते थे। इस कारण उन्हें यात्रा के लिये मुहूर्त निकलवाने में और यात्रारंभ के लिये घृतश्राद्ध करने में किसी पंडित की सहायता की आवश्यकता न थी किंतु जब श्रीमती की यह रोय थी कि जो कुछ करना चाहिए वो सब ब्राह्मण की आज्ञा लेकर, तब इन्हें नगर के विद्यापति पंडित को बुलवाना पड़ा। पंडित जी आए और अपना पोथी पत्रा लेकर आए परंतु ज्योतिष पढ़ने के नाम पर इनके लिये काला अक्षर भैंस बराबर था।