पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/३९

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"एक बार सब को खा लेने दे, तुझे भूख है तो तू भी खा ले। मैं कुछ देर से खाऊँगा। मुझे भूख कम है।"

"नहीं भूख कम नहीं। न मालूम किसी सोच में हो? छोड़ो इन झगड़ो को। सब अपना अपना दुःख सुख भोग लेंगे। सब ही अपना अपना नसीब लेकर आए हैं। काजी जी दुबले क्यों कि शहर का अंदेशा। जीना हमेशा थोड़े ही है। काल सिर पर नाच रहा है। परलोक भी सँभालो। अब बहुत हो गया। निचिंत होकर राम नाम जपो और तीर्थ करके अपना आगा सँभालो।"

"हाँ! सलाह तो ठीक है। पर मेरे लिये ही दूध क्यों? औरों को क्यों नहीं दिया? मैं अकेला बाल बच्चों को छोड़ कर दूध खाऊँ? इस बुढ़ापे में ऐसा पाप? नहीं! मैं न लूँगा। आओ रे बच्चो घूँट घूँट पी जाओ।"

"आज सारा ही दूध फट गया। न जाने किस निपूते की नजर लग गई। सेवा की दुलहिन अल्हड तो है ही। दो पांच बालको की माँ है तब भी इसका बचपन नहीं गया। चूल्हे पर कढ़ाई छोड़ कर अपनी द्योरानी से बातों में उलझ गई। बस इसी की बेपरवाही से आज इतना नुकसान हुआ। मैंने गालियाँ बहुत दीं और सेवा ने मारा भी कम नहीं पर "अब पछताए का होत है जब चिड़ियाँ चुग गई खेत।"

"खबरदार! (क्रोध से अपनी लाल लाल आँखें निकाल कर लकड़ी उठाते हुए) इस बिचारी गाय को मारा और गाली दी