"अजी साहब! हमें गुरु बनाओगे तो पछताना पड़ेगा? स्त्री को गुरु बनाना उसे माथे चढ़ाना है। और माथे चढ़ाने से मेरा बिगाड़ है, आपका सुख किरकिरा हो जायगा। मुझे तो आप अपनी चेरी बनाओ। आपकी दासी हूँ!"
"अच्छा तो मैं तेरा गुरु, और तू मेरी गुरुआनी।"
"गुरुआनी तो आपकी नहीं, आपके शिष्यों की।"
"हाँ! सो तो ठीक परंतु मैं तुझे अंगरेजी पढ़ा दूँ और तू मुझे……"
"हाँ! हाँ!! चुप क्यों हो गए? फर्माइए न?"
"अच्छा जो तेरी इच्छा हो सो ही।"
बस इसी पर मामला तै हुआ। इस प्रकार से सुशीला की सान पर चढ़कर प्रियंवदा जो हीरा तैयार हुआ था उसे प्रेयानाथ के संग ने ओप दिया। उनके लिये वह सच्ची प्रियं- वदा और उसके लिये वे सच्चे प्रियानाथ थे। अब आगामि प्रकरणों में यह देखना है कि यह जोड़ी कहाँ तक सुखी रही, इस पर क्या क्या बीती और कैसे इसने अपने कर्तव्य का पालन किया। तब ही मालूम होगा कि इन्होंने कष्ट उठाया सो भी सीमा तक और इनको सुख हुआ सो भी सीमा तक।
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