पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/५३

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तरह भाग गई है। डर के मारे कलेजा थरथरा रहा है, शरीर के रोंगटे खड़े हो रहे हैं। आँखों में से आँसुओं की धारा बह रही है। फिर चिराग जलाती है और फिर गुल होता है। एक बार जलाया और दो बार जलाया और नौ बार जलाया। हद हो गई। यदि जीवनसर्त्रस्व ही पास हो तो डर काहे का? परंतु यह भी आज अभी तक नहीं आए। घंटे गिनते गिनते बावली हो गई। कह यह गए थे कि―"जल्दी आऊँगा।" परंतु क्या यही जल्दी है? बारह बजे, एक बजा और दो बज गए। उकता कर किवाड़ खोला तो सामने एक काला काला भूत! भूत भी ऐसा वैसा नहीं विचित्र भूत! जब पहले उसे देखा तब बच्चा सा था। फिर बच्चे से आदमी हुआ और अब बढ़ते बढ़ते ताड़ सा हो गया। आँखें देखो तो दो मशाल सी और दाँत! दाँतों की न पूछो बात? लाल लाल लंबे लंबे, बड़ी बड़ी गाजर से और डाढ़ी मोछों के बाल! मानों मुँह पर झाडू लटका दी है, बदन काला, काला काले तबे के पेंदे सा और हाथ पैर मानों हाथी की सी सूड़! बस देखते ही एक दम घबड़ा उठी। "हाय मरी! हे नाथ बचाइयो!" कह कर तुरंत ही धड़ाम से गिरी, गिरते ही उसे तन बदन की सुधि जाती रही, धड़ाम का शब्द भी एक बार नहीं। जब एक सीढ़ी से दूसरी पर नौर दुसरी से तीसरी पर इस तरह गिरती पड़ती सात सीढ़ियों पर गिरी तब आवाज भी धड़ाम! धड़ाम!! सात बार आनी ही