पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ४१ )

चाहिए। उसके गिरने के शब्द से डर के मारे मोर "म्याओं म्याओं" कर उठे, बंदर डालियाँ पकड़ पकड़ कर चिंचियाने लगे और मुहल्ले वालों के भी कान खड़े हो गए।

बाहर से आकर चौकीदार ने आवाज दी―

"चोर है चोर! जल्दी दौड़ो चोर है।"

"हैं! कहाँ चोर है? क्या हमारे मकान में?" कहता हुआ एक आदमी दौड़ कर आया। और चौकीदार ने―"हाँ" कह कर अंगुली के इशारे से मकान दिखलाया। आने वाले ने दरवाजा खटखटाया तो भीतर से कुंडी बंद। एक बार, दो बार, तीन बार जोर जोर से चिल्ला चिल्ला कर "किंवाड़ा खोलो?" पुकारा तो जवाब नहीं। लाचार होकर इसने चौकी- दार की सहायता से किंवाड़ तोड़ा। भीतर जाकर ज्यों ही इसने जेवी लालटेन की रोशनी में वहाँ का दृश्य देखा तो इसका ऊपर का सांस ऊपर और नीचे का नीचे रह गया। पसीने से कपड़े तर। वहाँ जाकर देखता क्या है कि उस रमणी के सिर में से लोहू के पनाले बह रहे हैं। छाती में धड़के के सिवाय कहीं नाड़ी का पता नहीं। शरीर ठंढा पड़ता जाता है। हाथ पैर सँभाले तो बर्फ जैसे शीतल। उसे कपड़े की बिलकुल सुधि नहीं और आँखें फाड़ कर देखी तो सफेदी के सिवाय कहीं काली पुतलियों का नाम नहीं। इसकी ऐसी दशा देख कर एक बार यह अवश्य ही घबड़ाया, इसने यह निश्चय समझ लिया कि अब इसके प्राणों से हाथ धो बैठे।