पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/५७

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हुआ। तू जब कोई काम ही ऐसा नहीं करती है तब मैं क्यों होऊँ? यदि तुझसे कुछ अपराध भी हो गया होगा तो मैं क्षमा करता हूँ। जो कुछ हो कह दे। निर्भय होकर कह डाल। नहीं तो मुझे भय है कि मैं तुझसे किसी दिन हाथ धो बैठूँगा।"

"नहीं! अभी तक मुझसे कोई अपराध नहीं बना है परंतु इस बात का कह देना ही अपराध है। खैर आप क्षमा कर चुके, आपका इस बात के जानने के लिये इतना आग्रह है और इसी पर मेरे जीवन मरण का जब आधार है तो मुझे अवश्य कहना पड़ेगा।"

हाँ! हाँ!! तो कहती क्यों नहीं? पहेली क्यों बुझाती है।"

"अच्छा सुनिए। जब मैं तुम्हारे साथ परदेश रहती हूँ तब बहुत ही मौज से गुजरती है। तब ही मैं घर आने का नाम सुनते ही घबड़ाया करती हूँ। जब से यहाँ आई हूँ तब से मुझे न तो खाते चैन लेने देती है और न सोते। निपूती नींद से भी दुश्मनी हो गई है। दिन रात, घर में, बाहर, जहाँ देखो वहाँ, हर बड़ी मेरी आँखों के सामने। कभी रोती हैं, कभी हँसती हैं, कभी, आग वरसाती हैं और कभी भयानक भयानक सूरतें दिखाकर मुझे डराती हैं। जब तक जीवित रहीं तब तक मेरी नस नस में तेल डाला और अब मर जाने पर मेरा कलेजा खाए जाती हैं। कुछ हो भी तो कहाँ से हो? इस घर में रहोगे तो एक न एक दिन मुझे मारी समझना।"