पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/५९

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"मैं पहले क्षमा माँगती हूँ। मेरा अपराध यही था कि मैं गरीब घर की बेटी हूँ। मेरे विवाह से उनकी साद नहीं पूरी। बस इस बात का हर दम ताना दिया करती थीं। कभी कभी गालियाँ देती थी और कभी मेरी जबान से कुछ जवाब निकल गया तो मार भी बैठती थीं।"

"और छोटे भैया की बहू के साथ?"

"वह लखपती की बेटी है। प्रथम तो वह लाई है सब कुछ फिर वह धनवान् की दुलारी बेटी ठहरी। उससे एक बात कहे तो वह उत्तर में सवह सुनावे। 'वक्र चंद्रमहिं ग्रसै न राहू।' वह अब भी कहती है कि भाभीजी की तरह मुझे सतावे तो मैं झाडू ले खवर लूँ। मैं हाथ जोड़ती हूँ तो मुझे तंग करती हैं और वह गालियाँ सुनाती है तो उसकी ओर फट- कती तक नहीं।"

"अच्छा! खैर! परंतु इसका उपाया?"

"उपाय एक नहीं मैं अनेक बार कह चुकी। उपाय यही गया श्राद्ध वह चाहती हैं। कई बार मुझ से कहा भी है।"

"मेरी माता को भी योनि मिले मैं भी नहीं मानता। तुझे कुछ वहम हो गया है। नहीं तो सब वाहियात है। सरासर झूठ है।

इतने ही में बाहर से आवाज आई―"नहीं बिलकुल सच है।" "हैं! यह किसने कहा?" कह कर पंडित प्रियानाथ देखने के लिये बाहर निकले और वहाँ किसी को न पाकर