पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/६२

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दूँगी, और हजार बार गाली दूँगी। जो ( अपने पति को सुना कर ) किसी को बुरा लगे तो कानों में ऊँगलियाँ देले-डट्ठे ठूँस ले।" इस बात पर पति यदि उसे मारता तो या तो लात के बदले लात और अपने प्राणनाथ की इतनी सेवा न बन सके तो गालियों में कसर ही क्यों चाहिए। यह स्पष्ट कहती ही थी कि―"मैं ऐसी कँजूस थोड़े ही हूँ जो गालियों में कसर करूं।"

कांतानाथ बिलकुल चुप था। यदि किसी दिन भाभी के आगे इस बात की चर्चा हो तो हो भी, किंतु भाई से पुकारने की उसने एक तरह सौगंद सी खा रखी थी। उसने कई बार कहना भी चाहा परंतु अपनी ही बहू की पिता समान भाई के सामने चुगली खाने में उसे लज्जा आती थी और यदि कहा भी जाय तो वह उसका क्या कर सकते थे? इसके सिवाय वह अच्छी तरह जानता था कि भाई पढ़े लिखे आदमी हैं, भूत प्रेतों की कहानियों पर उनका विश्वास नहीं इसलिये मन मार कर रह जाता था।

कांतानाथ यदि लोक लाज के भय से, भाई से डर कर अपना इस तरह मन मसोसा कर तो कर सकता है क्योंकि यह "सेर सूत की पगड़ी" बाँधता है परंतु जो स्त्री अपने जीवनसर्वस्व को झाडू मार देने में न चूके वह जेठ को सुना देने में कब कसर कर सकती है। यों जिस समय जेठ जी साहब घर में आवें उनके आगे वह कभी नहीं निकलती थी। निक-