पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ५२ )

लाने पर भी कांतानाथ ने कुछ जोर न दिया। और प्रियंवदा को तो गरज ही क्या जो अपनी देवरानी को उपदेश देकर अपने ही कपड़े फाड़बावे।

खैर उसने लड्डू, कचौड़ी मोहनभोग, जलेबी आदि भाँति भाँति की सामग्री कर सबको पेट भर जिमाया और बालक के लिये जो जो बनवाया गया था वह सब लोगों को दिखलाया भी। यहाँ तक सब प्रकार की खैर रही परंतु जब इतना हो चुका तो 'गीत गान बिना कार्य की शोभा ही क्या?' बस इसी विचार से रात्रि के समय गौनहारियाँ बुलाई गई, जाति विरादरी की और अड़ोस पड़ोस की स्त्रियों को याद किदा गया और उनमें वाटने के लिये बताशे भी मँगवाए गए। पहले पहले खूब ही अच्छे अच्छे इस उत्सव के निमित्त लड़का होने की खुशी में गीत गाए गए किंतु जब ऐसा गाना बजाना समाप्त हो चुका तो प्रियंवदा के हज़ार नाहीं करने पर भी औरतों ने गाली गाना आरंभ कर दिया। वह घबड़ा कर , शर्मा कर और सिर दर्द करने का बहाना करके उठी भी परंतु किसी में उठने न दिया। उसने स्पष्ट कह दिया।

"मैं ऐसी वेषर्दगी की जगह एक मिनट भी नहीं ठहर सकती। तुम्हें शर्म नहीं आती तो तुम जी खोल कर बको। मैं ऐसी बातें सुनने से लाज के मारे मरी जाती हूँ।"

वह घर में बड़ी बूढ़ी थी, जाते जाते जो रहे वही बड़ा।