पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ५५ )

छोड़ने की तैयारी कर रहा है, जब इसके बाल बिखर कर, होंठ फड़फड़ा रहे हैं तब प्रियंवदा अपनी धोती खुल जाने के डर से उसे जोर से थामें हुए आँखों से आँसू ढरकाती हुई खड़ी खड़ी रोने के सिवाय चुप।

मकान के भीतर यों हल्ला गुल्ला जिस समय हो रहा था कांतानाथ बाहर खड़ा खड़ा एक एक बात सुनकर अपने नसीब पर अपनी छाती ठोंकता था, कभी क्रोध में आकर अपनी जोरू की नाक काटने पर उतारू होता था तो कभी आपने बड़े बूढ़ों की बात में बट्टा लग जाने के भय से योंही मन मसोस कर रह जाता था। वह अपने मन में भली भाँति जानता था कि उसकी जोरू नहीं सांप का पिटारा है। उसे निश्चय था कि यदि मैंने थोड़ा सा भी छेड़ा तो मेरी झाडू से खबर ली जायगी। पिटते पिटते मेरी चाँद गंजी हो जायगी। परंतु उससे अब रहा न गया। "हैं! क्या है? क्या है? मामला क्या है?" करता हुआ वह घसमसा कर भीतर आया। वहाँ आकर―

"बस बस! बहुत हो गया। भागवान अब तो चुप हो! मेरी माँँ के बराबर भौजाई से ऐसा बर्ताव! हरामजादी, तुझे शर्म नहीं आती। निकल मेरे घर में से राँड! बच्चों को आप खा गई और औरों पर कलंक लगाती है। बच्चों को खा गया तेरा कलह। और जब मुझे भी खा जायगा, इस घर को चौपट कर देगा तब तेरे पितर पानी पियेंगे। राँड निकल घर में से। तुम राँड से तो मैं रँडुआ ही भला।"