पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/८०

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नशे में चूर होकर एक खाली गाड़ी के नीचे पड़ा पड़ा खर्राटे भर रहा था। पंडित, पंडितायिन के हज़ार नाहीं करने पर भी इसने चंडू पिया, उनके परिश्रम की, कष्ट की और अपनी नौकरी की किंचित् भी पर्वाह न कर उसने चंडू पिया और सच पूछो तो उस समय का "गम गलत" करने के लिये पिया।

पिया तो पिया! उसका व्यसन था और पिया किंतु उसको भूख और प्यास से व्याकुल समझ कर जब पंडितायिन ने जगाया, पति के नाहीं करने पर भी उस पर दया करके खाने पीने को दिया तो खा पीकर फिर सो गया। फिर प्रियंवदा ने जल के छीटे देकर जगाया तो चुप, कांता भैया ने टाँग खैंच कर जगाया तो चुप और पंजित जी ने लात मार कर जगाया तो चुप। यदि बहुत ही दिक्क़ हुआ तो सोते सोते, करवट बदलते बदलते और आँखें मलते मलते इतना कह दिया कि―"साले यों ही सताते हैं। पियेंगे और हज़ार बार पियेंगे। जो मरते हैं उन्हें मरने दो। तुइहें मरना हो तो तुम भी मरो। कल मरते सो आज ही क्यों न मर जाओ। पीते हैं, और गाँठ का पैसा काट कर पीते हैं। किसी ससुर या क्या पीते हैं?"―इस पर पंडित जी ने नाराज होकर उसे नौकरी से अलग भी कर देना चाहा क्योंकि काम का नाम लेते ही वह आँखें दिखला दिया करता था। एक बार पंडित जी के साथ कहीं दौरे पर गया था। पंडित जी ने कहा "अरे चिराग गुल कर दे" वह लिहाफ में लिपटा लिपटा बोला―