पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/८४

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पुरखा और बंदर हमारे पुरखा! चौबे मरै सो बंदर होय और बंदर मरै सो चौबे!"

खैर! बंदर चौबे डील डौल में खासा पंदर जैसा था। आज कल का सा बंदर नहीं रामावतार का सा बंदर। उसके थाली के पेंदे जैसे गोल और विशाल चहरे पर दाढ़ी और मोछ की कुछ कुछ बढ़ी हुई हजामत ऐसी मालूम होती थी मानों सूर्य के प्रकाश में दिन-मलिन चंद्रमा के खाई खंदक। उसके ललाट पर केसर की खौर देख कर यह कहने की इच्छा होती थी कि कहीं फीके चाँद पर रंगत चढ़ा कर रात को प्रदर्शिनी के लिये आज कल का कोई नवीन विज्ञानबाज नया चंद्रमा तो नहीं तैयार कर रहा है। उसके दोनों कंधों के मध्य भाग मैं उसका सिर ऐसा दीख पड़ता था जैसे पंसेरा लोटा उलट कर रख दिया हो। उसके सिर से अलग दीखने वाले दोनों कान मानो इस लोटे का भार सहने के लिये दो कुँडे थे और उसका मुँह पिचक पिचक जर्दा थूँकने के लिये नाली। इतने पर यदि किसी महाशय को नाक की उपमा ढूँढनी हो तो आज कल के किसी नामी कवि से जा पूछे। क्योंकि न तो मैं कवि ही हूँ और न कधियों का सा मेरा दिमाग। उसके मुख के, मस्तक के स्वरूप से पाठक अनुमान कर सकते है कि उसका शरीर कैसा विशाल, कैसा भारी और कैसा मोटा था।

हाथ में कान के बराबर ऊँचा बाँस का एक लट्ठ और बगल में एक बटुए के सिवाय वह अपने पास कुछ नहीं