(७७)
आँखों में जा बिराजी। इस तरह कभी हँसते, कभी मुसकुराते, कभी शरमाते और कभी अपनी अर्द्धांगिनी के कमल नयनों से अपने नेत्रों को उलझाते–कोई देख न ले–इस डर से छिपाते विश्रांत घाट पर पहुँच कर इन्होंने भगवती रविनंदनी यमुना को प्रणाम कर ज्योंही—
जहाँ जहाँ जमा बहै, तहाँ, तहाँ जम नाँय॥
मारी परे दूत अब इन में दम नाँय रे।
सूखि गई सरिता वैतरणी नदी आदि ले,
कटि गई फाँसी जहाँ लाल खंभ नाँय रे।
चित्रगुप्त डूब्यो सिंधु कागज समीप ले,
तोकूँ तो कवि विलास एती गम नाँय रे।
धाम जमना है, जाको नाम जमना है,
श्री जमुना जू या में कौन भलाई? (टेक)
नाम रूप गुण ले हरि जू को न्यारी आपनि चाल चलाई।
ऊजर देश कियो भ्राता को तुम परसत उत कोउ न जाई।
जे तन तजत तीर तेरे नर तात तरणि पर गैल चलाई।
मुक्ति बधू को करै दूतिपन अधमन हूँ सो आन मिलाई।
आपन श्याम आन उज्वल कर तात तपत निज सीतलताई।
जल को छल कर अनल अघन को ये सुन कर कोऊ न पत्याई।