पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/९१

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यद्यपि पक्षपात पतितन को तदपि गदाधर प्रिय मन भाई।" कहते हुए नदी में प्रवेश किया सीढ़ियों पर से आवाज आई-

"जजमान, गठजोरे तें। आज गठजोरे तें स्नान करिवे को लेख है।"

"मैं तो अपना उत्तरीय ही मकान पर भूल आया।"

"भूलि आए तो चिंता कहा है? मैं आती बिरियाँ बजार तें कपड़ा ले आयो हूँ।"

यह सुन कर पंडित जी ने कपड़ा लिया। कपड़ा और नहीं लाल टूल। देख कर उन्होंने बहुत नाक सिकोड़ा। "हिंदुओं के धर्म कर्म में भी विलायती कपड़ा? देश का दुर्भाग्य!" कह कर उन्होंने अपने हाथ से उसे धोया। धोकर अपने कंधे पर डाला और उसका दूसरा छोर अपनी गृहिणी को देकर गठ- जोरा बाँधने का इशारा किया और तब हाथ में जल उठाकर यमुनामी में खड़े खड़े बोले―

"हाँ! संकल्प! बोलिए। जरा उतावले ही, क्योंकि कछुओं का बड़ा भय है। कहीं नोच खाँय तो सारी यात्रा यहीं पूरी होजाय।"

"अरे सचमुच खाया। आजी मैं चली! हाय लहू निकल आया! ओहो! लहू क्या माँस नोंच कर ले गया! हाय डूबी! भाजी मुझे बचाओ। हाय डूबी।" कहकर ज्यों ही प्रियंवदा रोने और पानी में डुबक डुबक करने वाली पंडित जी ने उसका हाथ पकड़ कर उसे किनारे पर कर लिया।