पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/९३

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इसलिये आई की यजमान विद्वान् है और उससे बहुत कुछ पाने की आशा है। खैर जैसे तैसे हिम्मत करके चौबे जी बोले―

"अतराद्दे, अतराद्दे मासाना मास्ये। आज कल महीनों कौन सा है? सारे महीने को नाम हू या विरियाँ भूल गए! अच्छो! जेठ मास्ये, सुभे सुकल पच्छे, अपनो नाम गोत्तर उच्चार्ण अपने बाप दादान को नावं, महारानी यमुना जी में गठजोरा ते स्नान करवे में, सौबेने को लडुआ, खीर और कचौड़ी जिमायबे ते, अपने पंडा को भरपूर दच्छना देबे में कड़ोर अस्समेद को पुत्र होय! अच्छो जजमान अब रोरी अच्छत से यमुना जी की पूजा करो! अब सेला, दुपट्टा, गहनो, गैया, घोड़ा, हाथी, नगद जो कछु चढ़ामनो होय भेट करो। और तब स्नान करो।"

"बस हो गया! सारा कर्मकांड समाप्त हो गया? अरे ऐसे लंठ! इन्हीं ने मूर्ख रह कर हिंदुओं को डुबो दिया। राम राम! ऐसे मूर्खराज और सो भी हमारे पुरोहित! ऐसी यात्रा करने से तो घर बैठे रहना अच्छा। चौबे जी महाराज, श्वापको जो कुछ मिलना होगा लो मिल जायगा। किसी अच्छे कर्मकांडी पंडित को लाओ ना?"

"हम कहा मूरख हैं जो पंडित को ढूँढने के लिये झष मारते फिरैं। तिहारे बाप दादा ऐसे ही संकल्प करते करते मर गए और हमारे बाप दादा ऐसे ही सुफल बोलते बोलते! आग लगै या अंगरेजी कूँ जाने दुनियाँ भरस्ट कर डारी।"