पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/९५

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ओहो! बड़ो लंबो लेकचर दे डाल्यो! खबरदार! (उस नए ब्रह्मण से) तैने किसी काम के हाथ हूँ लगायो तो! अभी (लट्ठ दिखलाकर) या सों खोपड़ी न फोड़ डारूं तो मेरो नाम बंदर नहीं! मोहे जेलखाने जाइवे में कछु डर नाहीं है! कछू फाँसी तो होयगी ही काहे को? चार छः महीना काटि आमेंगे पर तेरो तो कल्याण ही समझ! जो बरस छ: महीना खटिया पर पड्यो पड्यो न मूतै तो मैं अंदर ही कहा?"

"नहीं भैया! मुझे तुम्हारा यजमान नहीं चाहिये। मैं तो परदेशी हूँ। पेट भरने आया हूँ। और (जमुनाजी की ओर इंगित करके) माई भिक्षा ही से पेट भर देती हैं। न कुछ लादना है और न पालना। न जोरू न जांता अल्ला मियां से नाता। फिर तुम्हारा पेट क्यों फोडूं!" कहकर जब वह नवागत चलने के लिये खड़ा हुआ तो बात बढ़ती और अपना विचार बिगड़ता देखकर पंडित जी बोले―

"चाहे कोई जाओ और चाहे कोई रहो। होगा वही जो मैंने कह दिया है। यदि कर्म करानेवाला कोई ब्राह्मण इस समय न मिले तो न सही। मैं भी तो ब्राह्मण हूँ। स्वयं अपने हाथ से कर लूँगा। हां! इतना हो सकता है कि यदि यह बंदर सचमुच बंदरपन न करे तो वह भी खाली हाथों न लौटेगा।"

पंडित जी के पिछले शब्दों ने बंदर के मन पर कुछ असर