पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/९६

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किया। वह "अच्छा यजमान"-कह कर बैठ गया। नवागत ब्राह्मण का नाम विष्णुगोविंद गौडबोले था। उसी ने स्नान दानादि कराए। गठजोरे से स्नान कर जब दंपति बाहर निकले तो सूखे वस्त्र पहनने की फिक्र हुई। पंडित जी की धोती मिली, कांतानाथ की मिली किंतु प्रियंवदा का पीतांबर गायब। भोला कहार में चाहे हजार ऐब हो परंतु वह चोर नहीं था। मालिक के नुकसान होने के डर से नहीं, मालिकिन के कष्ट पाने से नहीं किंतु "चोरी लगेगी" के भय से भोला घबड़ा उठा। "हैं बंदर ले भागा! हैं बंदर! वह देखो कदंब की डाली पर बंदर हाय हाय! पीतांबर फाड़ रहा है! दौड़ो! दौड़ो!!" की चिल्लाहट चारों ओर से मच गई। बिचारा बंदर इस समय काम आया। यजमान को प्रसन्न करने के लिये अथवा यों कहो कि उसका उपकार करने के लिये वह दौड़ा हुआ बाजार में गया, परंतु बाजार से बंदर के लिये लड्डू जलेबी लाना कोई एक मिनट का काम नहीं। लाभ जल्दी हो तब भी कम से कम पंद्रह बीस मिनट चाहिएँ। पंडित जी ने प्रियंवदा को अपनी धोती पहना देने के लिये हठ भी बहुत किया किंतु "सुहागिन नारी धुली धोती नहीं पहना करती हैं। श्वेत वस्त्र पहनना उनके लिये गाली है।" कहकर उसने पति को चुप कर दिया।

चुप अवश्य कर दिया किंतु इस समय इस रमणी की दशा बड़ी विचित्र थी। एक ओर जेठ को महीना होने पर भी जाड़े