पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/९७

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के मारे जब यह केले के पत्र की तरह काँप रही थी तब दूसरी ओर लाज निगोड़ी इसे अलग ही मारे डालती थी। प्रथम तो इसकी धोती ही बारीक और फिर पानी से भीगने से और भी बारीक होकर इसके शरीर से चिपट गई। लाज के मारे यह अवश्य मरी जाती है और इसलिये चाहती है कि "यदि धरती माता अभी रास्ता दे दें तो उसमें समा जाऊँ"। यह अपनी लाज्जा बचाने के लिये वहाँ से भाग कर कहीं जा छिपने का प्रयत्न भी करना चाहती है परंतु भीड़ के मारे इसके लिये एक पैंड भी बढ़ना कठिन। यह अपने मन ही मन में ऐसे खुले और मर्दाने घाट पर स्नान करने का दोष देकर पत्ति पर नाराज भी होती है परंतु अब पछताने से लाभ ही क्या? इसने वारीक मलमल पहनने पर अपने को कोसा भी बहुत और आगे ले बारीक और बिलायती कपड़ा न पहन कर देशी मोटा कपड़ा पहनने की कसम भी खाई। बस इसी तरह के उधेड़ बुन में पड़ी हुई जब यह अपनी गीली धोती को इधर उधर से खैंच कर अपना शरीर ढाँकती जाती है, ढाँकते हुए पैर के अँगूठे से धरती खोदती हुई मानो छिप जाने के लिये रास्ता ढूँढ़ रही है उसी समय भीड़ में से किसी ने―

कविवर बिहारी लाल की सतसई का एक दोहा कह कर अवाज फेंक ही तो दिया। बिचारी की ऐसी विपत्ति के एक समय उसके कोमल कलेजे को कुचल डालने में उस मनुष्य