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आधे भीतर शब्दों में और कभी मन ही मन इस तरह गुनगुनाया करता हैं --

"शिवपुर गइली झटपट खइली, कपिलधारा गइली रोय।

भिमचंडी गइली गठरि गुमौली, अब न जाब पचकोस॥"

काशीवालों के पंचकोशी के अनुभव का यह निचोड़ हैं। यह अनुभव वहाँ के पढ़े लिखे लोगों का अथवा उच्चवर्ण के आदमियों का नहीं, मजदूरी पेशा लेगों का है। समय और असमय जब कभी पंडितजी इसे सुनते हैं तब मुसकुरा उठते हैं और कभी कभी उसे छेड़कर सुनते भी हैं।

पंचकोशी की यात्रा में सामान्य रूप से और काशी के प्रधान प्रधान देवस्थान होने से विशेष कारके इन्हेांने वहां अन्न- पूर्णा, बिंदुमाधव, कालभैरव, ढुंढ़िराज, दुर्गा और ऐसे ऐसे नामी नामी मंदिरों के दर्शन करने में, मणिकर्णिका पर लान करने में, गया श्राद्ध के निमित्त पिशामोचनादि स्थलों पर श्राद्ध करने में जो आनंद लूटा उसका नमूना गत प्रकरणों में आ चुका। उसे किसी न किसी रूप में यहाँ प्रकाशित करके पोथी को पोथा बना देने में कुछ लाभ नहीं। हाँ एक दिन ये घाट घाट की यात्रा करते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी के आश्रम पर गए। जिस स्थान पर बैठकर एकाग्र चित्त बड़ी भक्ति के साथ महात्मा ने "रामायण मानस" की रचना की थी, जहाँ पर उनका देहावसान हुआ था उसी पुण्य स्थल पर यदि रामायण की