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(९९)

ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा।
उभय धेप धरि सोइ कि आवा॥
सहज विराग रूप मन मोरा।
थकित होत, जिमि चंद चकोरा॥
तातें प्रभु पृछउँ सति भाऊ।
कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥
इनाहिं बिलोकत अति अनुरागा।
बरबस ब्रह्मसुखहिं सन त्यागा॥

जहाँ राजा जनक जैसे ब्रह्मज्ञानी को भी भगवान् के दर्शन करके 'बरबस' ब्रह्म का सुख त्यागना पड़ा था तब बिचारे ये किस गिनती में हैं। कथा विसर्जन होने तक ये लोग वहाँ बैठे हुए अवश्य ही भक्तिरस की खूब लूट मचाते रहे परंतु समाप्त होने पर इन्हें वहाँ से लौटना पड़ा। पंडितजी चलते चलते बोले --

"सबसे अधिक धन्य तो रामभक्तों के शिरोभूषण हनु- मानजी है जो जहाँ कहीं भगवतचर्चा होती हो, रामायण पढ़ी जाती हो वहाँ बुलाए और बिना बुलाए दोनों तरह आ विराजते हैं। ब्रह्मर्षि वाल्मीकि ने भी संसार का बड़ा उपकार किया है किंतु मेरी लघु मति से गोस्वामी तुलसीदासजी का उपकार उनसे कम नहीं, उनसे भी बढ़कर है -- अप्रतिम है, अलौकिक है, स्वर्गीय है, मानुषी नहीं, वह मनुष्य नहीं देवता थे, देवताओं से भी बढ़कर थे!"