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ठिकाने आता है तन कम कसकर प्यारी की तलाश में प्रवृत्त
होते हैं और जब उनका प्रयत्न निष्फल चला जाता है तब
हाथ मारकर रो देते हैं। एसे वह घंटों तक , रोया करते हैं,
रोते रोते मूर्च्छित हो जाते हैं और जब उन्हें कुछ होश आती
है तब वावले की तरह यों ही बाही तबाही बकने लगते हैं।
वह अपनी प्यारी का पता राह चलते आदमियों से पूछते हैं,
मकानों से पूछते हैं, घाटों से पूछते हैं, सड़क की लालटैनों से
पूछते हैं और जो कुछ सामने आता है उससे पूछते हैं। किंतु
लाखों आदमियों की बस्ती में उनकी गृहिणी का पता बतलाने-
वाला नहीं, पता गया भाड़ चूल्हे में, ऐसा भी कोई माई का
लाल नहीं जो मीठी बातों से कोरी सहानुभूति दिखलाकर,
"बचने का दरिद्रता" का तो दिवाला न निकाल दे। हाँ!
उन्हें पागल समझकर चिढ़ानेवाले, लूलू बनानेवाले गार झूठे-
मूठे पते बतलाकर उनको सतानेवाले अवश्य मिलते हैं।
वह आज इसी दशा में रात्रि के दस बजे एक तंग और अंधेरी
गली में, जिसके विशाल विशाल भवन अपना सिर ऊँचा उठाए
आकाश से बातें कर रहे हैं, पंडितजी घूम रहे हैं। वह कभी
खड़े होकर "प्यारी प्यारी!" और "प्रियंवदा प्रियंवदा!" की
चिल्लाहट से कान की चैलियाँ उड़ाते हैं और कभी "धप!
धप!! धप!!!" पैरों को बजाते गली के एक छोर से दूसरे
छोर तक चक्कर लगाते फिरते हैं। कहीं से, किसी की,
कैसी भी सुरसुराहट उनके कान पर पड़ जाती है तो तुरंत ही