पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/११७

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के समर्पण में "मर जाना मंजूर है" और "जालसाई (भरघर) पर मिलेगी' से लगाकर पंडितजी ने अपनी प्रियतमा की मृत्यु हो जाना भाग लिया है। जो अटकल लागानेवाले हैं उन्हें इसका मतलब निकालने के लिये उलझने दीजिए। उनकी उलझन से यदि प्रियानाथ की प्रिया का पता लग जाय तो अच्छी बात है। किंतु हाँ! यह अवश्य लिख देना चाहिए कि इस जन-शून्य स्थान में इस समय न तो कोई उनकी आँखें छिड़ककर उनकी वेहोशी छुड़ानेवाला मिला और न उनकी चोट पर पट्टी बाँधकर कोई उपचार करनेवाला। एक बार पंडितजी ने किसी साधु के सामने वैद्यक शास्त्र के उपचारों की जब बहत प्रशंसा की थी तब उसने स्पष्ट ही कह दिया था कि -- "ये सब निमित्त मात्र हैं। यदि परमेश्वर रक्षा करना चाहे तो बिना किसी उपचार के प्रकृति स्वयं इलाज कर लेती है।" उस समय पंडितजी साधु की बात पर चाहे हँसे भले ही हों। किंतु आज प्रकृति के सिवाय उन्हें कोई चिकित्सक नहीं मिला। कोई घंटे डेढ़ घंटे तक यों ही पड़े रहने के अनंतर उनकी अकस्मात् आखें खुलीं। वह अब अपने रूमाल को चोट पर बाँधने के बाद कपड़ों की धूल झाड़कर खड़े हुए और जेब में पोटली डालकर आगे बढ़ निकले।

इस तरह जब वह कोई सत्तर अस्सी कदम आगे बढ़ चुके तब इस अँधेरी गली के एक अँधेरे कोने में से निकलता हुआ अचानक एक आदमी मिल गया। यद्यपि पंडितजी नहीं