पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१२१

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हो गया!" कहकर ज्यों ही अपनी छाती पर एक ओर से घूँसा मारते हुए बेहोश होकर गिरने लगे न मालूम किसने उनको सँम्भाला। यदि वह गिर जाते तो उस जगह स्तंभ से सिर फूटकर उसकी जीवन लीला वहाँ की वहाँ समाप्त हो जाती। उनको जिसने मारते मरते बचाया वह कौन था सो पंडितजी न जान सके। जान क्या न सके उन्होंने देखा तक नहीं, उन्हें भले प्रकार बोध तक न हुआ कि उनको किसी ने सँभम्ला है। जिन व्यक्ति ने उनको मारने से बचाया वह वास्तव में कोई महात्मा होना चाहिए। सचमुच ही उसके पवित्र कर कमलों का सुख स्पर्श होते ही इस विपत्ति महासागर में से उनका उद्धार समझ लो। एकदम उनके हृदय में दुःख चिंता के शोक और मोह के प्रलय पयोधर छिन्न भिन्न होकर शरत् पूर्णिमा के विमल चंद्रमा का शीतल प्रकाश निकल आया। उस शीत रश्मि की अमृत वर्षा से उनके अंत:करण की चिंता के सदृश चिंता का दहकता हुआ भीषण कृशानु एकदम बुत गया। परमात्मा को कोटि कोटि धन्यवाद देकर पंडितजी अपनी करनी पर पछताए। अब उन्हें विदित हो गया कि --

"वास्तव में इस विपत्ति का दोषभागी मैं ही हूँ। जो अंतर्यामी दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से अपने भक्तों की रक्षा करने के लिये सदा तैयार है उसको मेरी मूर्खता ने भुला दिया। मुझे निष्काम भक्ति का घमंड था। आज गर्वप्रहारी भक्तभयहारी भगवान् ने मुझे उबारने के लिये, केवल भुझ