पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(११५)


अकिंचन पर दया करके मेरा अभिमान छुड़ा दिया। निष्काम भक्ति अवश्य करनी चाहिए। निष्काम के बिना मुक्ति नहीं। किंतु परमेश्वर ले कमी, कैसी भी विपत्ति पड़ने पर ल माँगने का दावा मरना भूमिशायी होकर आकाश प्रहण करने के ख्याल बुद्धिहीनता है। आज मुझे अच्छा दंड मिल गया।"

बस इस प्रकार का विचार मन में उत्पन्न होते ही पंडितजी ने परमेश्वर को सँभारा। कौरव-सभा में वस्त्र बनकर पाँचों पतियों से निराश हो जानेवाली द्रौपदी के रक्षक भगवान वासुदेव का, आह में बचाकर गज को उबारने के लिये नंगे पैरों दौड़ आनेवाले गरूड़हीन गोविंद का और पापी पिता के कोप की अग्नि में भस्म होते होते रक्षा कर अखंड ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले भक्तशिरोमणि प्रह्लाद के जीवन- सर्वस्व भगवान् नृसिंह का उन्होंने स्मरण किया। उनके पश्चाताप उनकी प्रार्थना और उनके पूर्वकृत पुण्यसंचय से प्रसन्न होकर इस घट घट व्यापी परमात्मा ने चाहे प्रगट होकर नहीं किंतु उनकी बुद्धि द्वारा उन्हें ढाढ़स दिलाया। यद्यपि वह जन्म भर इस मूर्खता के लिये अपने को धिक्कारते भी रहे हों किंतु इस समय तुरंत ही अपना कर्तव्य स्थिर करके अब वह सच्चे उद्योग में प्रवृत्त हो गए।

---------