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प्रकरण--३५
प्रियंवदा या नसीरन

"वास्तव में दोष, क्या अपराध मेरा ही है। एक अस्थि चर्ममय शरीर के लिये लौ लगाकर इतनी विह्वलता! राल और थूँक से भरे हुए मुख पर इतना मोह! जिसका दर्शन ही चित्त को हरण करनेवाला है, जो प्रेम के फंदे में डालकर प्राण तक चूस लेनेवाली है उन पर इतनी आसक्ति! हाय बड़ा अनर्थ हुआ! राजर्षि भरत को मृगशावक के लिये मोह हुआ था और मुझे भी गृहिणी के लिये, नहीं नहीं अब मैं इसे गृहिणी नहीं कह सकता। गृहिणी वही जो केवल पति के सिवाय किसी की ओर नजर भर न देखे। यह कुलटा, साक्षात् व्यभिचारिणी! ओ हो! संसार भी कैसा दुस्तर है। जिसे एक घंटे पहले पातिव्रत की प्रतिमूर्ति समझ- कर जान देने को तैयार था वही पर पुरूष से -- हाय! हाय !! आगे कहते हुए मेरा हृदय विदीर्ण होता है, मेरी जिह्वा जली जाती है। वास्तव में बड़ा गजब हो गया। जिले मैं हिरे का हार समझे हुए था वह काली नागिन! जो मेरी हदये- श्वरी बनती थी वहीं मेरी जानलेवा, प्राण हरण करनेवाली डायन! बड़ा धोखा हुआ! मुझे धिक्कार है! एक बार नहीं, लाख बार! मैंने पतिव्रता समझकर कुलटा पर इतना मोह