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इससे बढ़कर सजा ही क्या हो सकती है। जन प्रतिज्ञा करता हूँ, संकल्प करता हूँ। बस आज ही से......"

"हैं! हैं!! एक निरपराधिनी को इतना भारी दंड! खबरदार अब मुँह से जो एक बोल भी निकाला तो। जरा समझकर, सोचकर निश्चय करके प्रतिज्ञा करो।"

"बस बस! मेरा हाथ छोड़ दो। मुझे रोको मत! देखो! यह रांड और वह रँडुवा, दोनों मुझ चिढ़ा रहे हैं। क्रोध तो ऐसा आता है कि अभी इनके टुकड़ टुकड़े कर डालूँ परंतु नर-हत्या के, नारी-हत्या के पाप से डरता हूँ।"

"छोड़ कैसे दे? हमारे सामने ऐसा अन्याय! हम कभी न होने देंगे। निरपराधों को हम कभी दंड न देने देंगे।

सहसा विदधीत न क्रियामविवेक: परमापदां पदम्।

वृगुते हि विमृश्यकारिण गुशलुब्धा स्वयमेव संपदः॥"

"अपराधी कैसे नहीं है? यह रोड अवश्य अपराधिनी है। मैं इसका मुँह देखना नहीं चाहता!"

"तुम जिसे अपनी गृहिणी समझते हो वह प्रियंवदा नहीं, नसीरन रंडी है। सूरत शकल चाहे थोड़ी बहुत तुम्हारी घर- बाली से मिलती भी हो, शायद कुछ अंतर भी होगा। अच्छी तरह निश्चय कारो। बिना विचारे काम करने से तुम्हें जन्म भर पछताना पड़ेगा क्योंकि मैं जानता हूँ कि प्राण जाने पर भी तुम अपनी प्रतिज्ञा टालनेवाले नहीं!"

"हैं! यह रंडी है और मेरी घरवाली?"