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फूल सी कोमल रमणी को अनाप सनाप बेहोशी सुँघाकर
उनकी रात का मजा मिट्टी में मिला दिया था। उनका एक
एक मिनट एक एक युग के समान व्यतीत होता था।
वह बेताबी के मारे कभी घबड़ाकर "यदि इसे होश न आया
तो हाय! मैं क्या करूँगा? धोबी का कुत्ता घर का रहा न
घाट का, जूँठा भी खाया और पेट भी न भरा।" कहते हुए
ठंढी सॉस लेते और इस अवसर में यदि प्रियंवदा ने करवट
बदलते हुए मूर्छा ही मूर्छा में कह दिया कि "हाय मैं मरी!
अजी मुझे बचाओ।" तो अपने मन को ढाढ़स देते हुए यह
कहने से नहीं चूकत थे कि "नहीं जान साहब! मैं आपको
मरने कभी न दूँगा। आपके लिये मेरा और तो और सिर
तक हाजिर है।" और इतना कहकर उसके उभरे हुए कपोलों
पर मुहर लगाने के लिये मुँह भी फैलाते थे किंतु फिर न मालूम
किस विचार से हट बैठते थे।
अस्तु! जब उसे अच्छी तरह होश आ गया तब वह एका- एक चौंककर बोली -- "हैं! मैं कहाँ हूँ? मरे प्राणनाथ कहाँ गए? यहाँ मुझे कौन राक्षस किसलिये ले आया?"
"राक्षस नहीं! तुम्हारा दास! प्यारी के चरणों का
चाकर! तुझ जैसी इंद्र की अप्सरा से मजे उड़ाने के लिये!
उसी की हवेलो के तहखाने में। प्यारी! एक बार नजर
भर मुझे देख ले, मेरा कलेजा ठंडा कर दे! मैं बिरह की आग
से जला जाता हूँ!"