पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१३४

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"मरे मत! ऐसी गोरी गोरी प्यारी को मैं मरने थोड़े ही दूँगा! अच्छा! अभी मैं जाता हूँ। आज के दिन भर की मुहलत है। बस रात को वारे न्यारे!" इतना कहता हुआ वह व्यक्ति उन चारों भासियों को खूब नाकीद करके उनका कड़ा पहला रखता हुआ, कहीं उनके पहरे में भाग न जाय इसलिये प्रियंवदा के पैरों में हनकी हलकी बेड़िया डालकर वहाँ से गया और जात जाते उससे इतना अवश्य सुन गया कि -- "बेड़ियाँ क्या तू यदि मुझे जान से मार डाले, मेरे टुकड़े टुकड़े कर डाले तब भी मैं तेरी न बनूँगी।"

इस तरह उसने एक ही बार समझाया हो, एक ही बार डराया हो सो नहीं। वह नित्य आता है नित्य ही खुशा- मद करता है, रोज ही लालच देता है और बार बार डर दिखाता है किंतु प्रियंवदा टस् से मस् नहीं। जो उसने एक बार कह दिया वह लोहे की लकीर। अब जब वह आता है तब ही वह उसकी ओर से मुँह फेर लेती है। उसके हजार सवालों का एक "नहीं" के सिवाय जवाब नहीं। वह सब तरह कर हारा परंतु प्रियंवदा का वज्र हृदय बिलकुल नहीं पसीजा, तब उसने बलात्कार के सिवाय कोई उपाय ही न देखा! उसने हजार चाहा कि इसे नशा देवार अपना काम निकाल लूँ किंतु बेहोशी के समय के बाद जब उसने एक दाना मुँह में न डाला, एक घूँट पानी तक का वास्ता नहीं तब नशे का ठिकाना कहाँ! भूखों के मारे, प्यास के मारे