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हा जगदीश! राख यहि अवसर प्रगट पुकारि कह्यो।
सूरदास उसगे दोउ नैना बसन प्रवाह बह्यो।
राग बिलाबल -- जेती लाज गोपालहि मेरी।
तेती नाहिं बधू हैं। जिनकी अंबर हरत सबन तन हेरी॥
पति अति रोप मारि मन माहियाँ भीषम दई वेद विधि टोरी॥
हा जगदीश! द्वारका स्वामी भई अनाथ कहत हौं टेरो॥
वसन प्रवाह बढयो जब जान्यो साधु साधु सबहिन मति फेरी।
सूरदास स्वामी यश प्रगट्यो जाली जन्म जन्म की चेरी॥
राग धनाश्री -- "निबाहो बाँह गहे की लाज।
द्रुपदसुता भाषत नँदनंदन कठिन भई है आज॥
भीषम कर्ण द्रोण दुर्योधन बैठे सभा विराज।
तिहिं देखत मेरो पट काढ़त लीक लागो तुम काज॥
खंभ फारि हिरनाकुश मारवोध्रुव नृप घरमो निवाज।
जनकसुता हित हत्यो लंकपति बाँध्यो सादर गाज॥
गद्गद सुर आतुर तनु पुलकित नैननि नीर समाज।
दुखित द्रौपदी जानि प्राणपति आए खगपति त्याज॥
पूरे चीर बहुरि तनु कृष्णा ताके भरे जहाज।
काढ़ि काढ़ि थाक्यो दुःशासन हाथनि उपजी खाज॥
बिकल अमान कह्यौ कौरवपति पारयो सिर को ताज।
सूर प्रभू यह रीति सदा ही भक्त हेतु महाराज॥"

इस तरह सूरदासजी के पद गा गाकर ज्योंही वह प्रार्थना करने लगी, न मालुम कहाँ से आठ दस लठैतों ने आकर

आ० हिं०--९