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प्रकरण--३७
घुरहू का प्रपंच

"विपति बराबर सुख नहीं, जो थोड़े दिन होय।"

वास्तव में दुःख अंतःकरण का रेचन है। दस्तावर दवा पीने से जैसे पेट के यावत् विकार निकल जाते है वैसे ही आपदा अंत:करण का मल धोने के लिये रामबाण है। सोना ज्यों ज्यों अधिक तपाया जाता है त्यों ही त्यों उसका मूल्य बढ़ता है। खान से निकलने पर हीरा जो कौड़ियों के मोल विकता है वही खराब पर चढ़कर लाख पा लेता है। जब तक आदमी धूप में ना जाय उसे छाया के सुख का अनुभव नहीं होता और इसी तरह यदि संसार में वियोग की विपत्ति न हो तो संयोग के सुख को कौन पूछे? एक महीना और कुछ दिन वियोग-महासागर में गोते खाकर, घोर संकट सहने के अनं- तर आज पंडित प्रियानाथ और उनकी प्यारी प्रियंवदा संयोग- सुख का अनुभव करने लगे हैं। वास्तव में यह सुख अलौ किक है। इसकी तुलना नहीं, समता नहीं। यद्यपि दोनों का प्रेम स्वाभाविक था, दर्पण की तरह विमल था किंतु अब हीरे की नाई शुद्ध हो गया। यावत् विकारों का समूल नाश होकर वह निखर गया। नसीरन के धोखे में आकर दुष्टों का चकमा खाकर उनके मन में जो भ्रम पैदा हुआ था उसके