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लिए पंडित जी बहुत पछताए, पत्नी के आगे प्रसंग आने पर लज्जित हुए।

आज दोनों एकांत में बैठकर अपनी अपनी "आप बीती" सुना चुके हैं। दोनों ही भगवान् को धन्यवाद देते हैं और दोनों ही पंडित दीनबंधु की प्रशंसा करते हैं। माता पिता अपने बालकों नाम अपनी समझ के अनुसार बढ़िया से बढ़िया तलाश करके रखते हैं किंतु इस दीनबंधु के समान उनमें "यथा नाम तथा गुण" बिरले हैं! अनेक वीर और बहादुर दुम दबाते फिरते हैं, असंख्य हरिश्चंद्र टके के लिये अपनी प्रतिज्ञा को पैरों में कुचलते देखे गए हैं, अनेक दीनानाथ दीनों का दरिद्र दूर करने की जगह दोनों का दलन करनेवाले हैं। जिनका नाम दयालु वे घोर अत्याचारी और जो सत्यवादी नाम धारण करते हैं वे मिथ्याप्रलापी। किंतु पंडित दीनबंधु वास्तव में दीनों के बंधु, सहायहीनों के सहायक निकले। उन्होंने एक बार नहीं सैकड़ों बार अपनी दीनदयालुता का परिचय दिया। यदि वह न होते तो आज दंपति को सुख से संभाषण करने का सौभाग्य ही प्राप्त न होता। वह जिसके लिये बीड़ा उठाते उसी को उबारकर दम लेते, उसकी रक्षा करने के लिये अपनी जान झोंक डालते और प्रत्युपकार के नाम पर उससे एक पाई न लेते, उलटे उसके कनौड़े रहते -- यही उनका व्रत था। वह यों जैसे प्रजा के प्यारे थे वैसे सरकार के भी कृपाभाजन थे, विश्वासपात्र थे, क्योंकि उनके जितने कार्य थे वे सब