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राजा-प्रजा का समान हित साधने के लिये, सरकारी आईन के अनुसार और धर्म के अनुकूल होते थे।

आज इन दोनों को लज्जा बचाकर, प्राण-रक्षा कर उन्हें परम सुख है। दोनों को घर पहुँचाकर शरीर-कृत्व से निवृत्त होने के अनंतर, स्नान संध्या से छुट्टी पाकर आगे को जब तक यह जोड़ी काशी में निवास करे इनको काई सताने न पावे, इसका पक्का प्रबंध करके इनका कुशल-क्षेम पूछने के लिये वे यहाँ आए हैं। यद्यपि इनकी वय पंडितजी से दस पाँच वर्ष अधिक होगी किंतु वह उन्हें पितृतुल्य मानते हैं। और मानने में अहसान ही क्या है? उन्होंने इनका उपकार ही ऐसा किया है कि जिससे कभी उत्कृण नहीं हो सकते। पंडित पंडितायिना स्वयं स्वीकार करते हैं कि "हम यदि अपनी खाल का जूता बनाकर भी पहनावें तो उनसे उत्कृण नहीं हो सकते।" अभी उनके आते ही प्रियानाथजी ने दीनबंधु का अभ्युत्थान, अभिवादन, अर्ध्य, पाद्द और मधुपर्कादि से प्राचीन प्रथा के अनु- सार सत्कार करके उनके विराजने को ऊँचा आसन दिया है, महात्मा के दर्शन करने की लालसा से गौड़बोले, बुढ़िया, गोपी- बल्लभ सव ही वहाँ आ आकर प्रणाम कर करके यथास्थान बैठ गए हैं। सबके जमा हो जाने पर पंडित प्रियानाथ समि- त्पाणि होकर बड़ी नम्रता के साथ इस तरह प्रार्थी हुए --

"पिताजी, भगवान् ने बड़ी अनुकंपा की। आप यदि हमारी रक्षा न करते तो दोन दुनिया में हमारा कहीं ठिकाना