पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१४२

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आजकल आपके समान उपकारविंदु को उपकार-महासागर माननेवाले विरले हैं। भस्मासुर की क्या कथा कहूँ। मुझे ही इस लघु जीवन में ऐसे ऐसे अनेक भस्मासुरों से पाला पड़ चुका है किंतु दुष्ट यदि अपनी दुष्टता न चूके तो न चूके, उसका स्वभाव है, सज्जनों को अपना सौजन्य क्यों छोड़ना चाहिए? मैं अपना अनुभव क्या कहूँ? पंडितजी आप ही सोच लो। आपने एक समय विपत्ति में जिस व्यक्ति को बचाया था वही आपकी थी, माता के समान नारी को भ्रष्ट करने और आपको सताने पर उतारू हो गया। इससे बढ़कर क्या कृत- त्रता होगी? कृतव्नता से बढ़कर संसार में आई दुष्कर्म नहीं!"

"हैं! मैंने किसी का उपकार किया? उपकार यद्यपि कर्तव्य है किंतु मुझे याद नहीं आता कि इस जीवन में कभी मुझ से किसी का उपकार बन पड़ा हो। महाराज तेली के बैल की तरह यह जीवन व्यर्थ ही व्यतीत हो रहा है। पिताजी, पहेली न बुझाओ। स्पष्ट कहो कि मैंने किसका उपकार किया?"

"वास्तव में सज्जनता इसी में है। जो सज्जन हैं के करते तो हैं किंतु प्रकाशित नहीं होने देते। अच्छा आप नहीं कहते हैं तो मैं ही बतलाए देता हूँ। आप दंपती ने किसी बार दौरे के समय कहीं, किसी व्यक्ति को मरते मरते बचाया था? रेल में यात्रा करते समय तीसरे दर्जे की गाड़ी में कभी आपको कोई प्लेग-पीड़ित मिला था? डाक्टर लोग उसे पकड़कर जब अस्पताल में पहुँचाने लगे तब आप दंपती अपना