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घुरहू नहीं उसका मित्र कतवारू था। कतवारू था इसी लिये आपके प्राण बच गए क्योंकि वह धन का लोभी था आपके प्राण का नहीं। घुरहू होता तो आपकी जान लिए बिना नहीं छोड़ता। वह आपका जानी दुश्मन बन गया है। आपने उसके घूँसा क्या मारा साँप के पिटारे में हाथ दे दिया।"

"तो महाशय अब? अब उससे कैसे रक्षा होगी? भय के मारे बड़ी घबड़ाहट है। महाराज बचाइए। हे भगवन् इस दीन ब्राह्मण की रक्षा करो।"

इस पर दीनबंधुओ ने प्रियानाश को बहुत ढाढ़स दिलाया। दंपती की रक्षा करने का जो जो प्रबंध उन्होंने कर रखा था, वह उन्हें समझाया। "नारायण कवच" और "राम- रक्षा" के यथावकाश पाठ करते रहने का अनुरोध किया और अष्टगंध से भोजपत्र पर सूर्यग्रहण में लिखे हुए चाँदी से मढ़े दो दो तावीज दंपती के गले में पहना दिए। दंपती पंडितजी की ऐसी उदारता से, ऐसे अनुग्रह से और ऐसे उप- कार से बहुत कृतज्ञ हुए और दोनों ने दीनबंधु के चरणों में मस्तक रख दिया। उन्होंने पंडितजी को छाती से लगा लिया। पंडितायिन के सिर पर हाथ फेरकर "अखंड सौभाग्यवती, पुत्रवती भव" का आशीर्वाद दिया और जब प्रियानाश दीन- बंधु के चरणों में एक हजार रूपए का नोट रखने लगे तब उनके हाथ में से ले, अपने मस्तक पर चढ़ा प्रियानाथ की जेब में डालते हुए दीनबंधु बोले --