(१४१)
"मुझे इसकी आवश्यकता नहीं।
भगवान् जैसे तैसे
मेरा योगक्षेम चला रहा है --
"अनन्याश्रितयंती मो ये जनाः पर्युपासते।
तेपां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥"
"हा यह सत्य है। परमेश्वर ही विश्वंभर है किंतु इस अकिंचन पुत्र का कर्तव्य है कि आप जैसे पिता, ॠषितुल्य महात्मा की प्रथा करें। उसी के लिये यह पत्र पुष्प है।"
"यह आपका अनुग्रह है, उदारता है किंतु मैं अपनी वृत्ति के अतिरिक्त ऐसे कामों में एक पाई भी किसी से नहीं लेता। मुझे इस बात की शपथ है।"
"तब आपकी वृत्ति?"
"मेरी वृत्ति! मैं क्या कहूँ? बड़ी निकृष्ट वृत्ति है। भिक्षा- वृत्ति से अधम आजकल कोई नहीं। आपका तीर्थ गुरु जिसने आपको श्राद्ध कराया था मेरा मा-जाया भाई है। वह मुझे पिता की तरह गिनकर मेरी सेवा करता है। उससे घर का निर्वाह होता है, खान पान चलता है और ऐसे कामों में जो खर्च होता है उसे मैं स्वयं कमाता हूँ। मैं जरी का काम अच्छा जानता हूँ। इसी से दो तीन रुपए रोज मिल जाते हैं।"
"धन्य महाराज! आपको करोड़ बार धन्य!! आप जैसे आप ही है!"
बस इस तरह की बातचीत हो चुकने पर दीनबंधु वहाँ से बिदा हुए।