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प्रकरण -- ३८
भक्ति की प्रतिमूर्ति

विपत्ति के समय भी गंगा-स्नान, संध्या-वंदनादि नित्यकर्म और विश्वनाथ के दर्शन पंडित प्रियानाश ने नहीं छोड़े थे। विकलता के मारे, अवकाश न मिलने से अथवा आत्मग्लानि ने उनकी रूचि ही यदि भोजन ने उचाट दी, यदि दो दो दिन के लंघन ही हो गए तो हो गए किंतु आह्विक न छूटना चाहिए। प्रारब्ध की बात जाने दीजिए। जैसे सरकार का ऊँचे से ऊँचा पद पाने के लिये आजकल जटिल से जटिल परीक्षा पास करने का तप करके दिन रात एक कर डालना पड़ता है वैसे ही ब्राह्मण शरीर धारण करके एक नहीं, अनेक विपत्तियाँ उसके लिये कसैटी हैं, परीक्षालय हैं। इस आपत्ति ने पंडित पंडितायिन की खुब परीक्षा कर ली। नंबर भी अच्छे आए। अब पाठकों को अधिकार है कि उन्हें पहले, दूसरे अथवा तीसरे दर्जे (डिविजन) में से किसी में पास समझें। पंडित दीनबंधु की सहायता से अब इन दोनों को, इनके साथियों को काशी में सुख से विचरने का अवकाश मिला है। यहाँ रहते रहते बहुत दिन बीत गए। अभी गया और पुरी की यात्रा शेष है। नौकरी पेशे के लिये छुट्टी का भूत भी सदा तैयार रहता है। साल भर तक ताँगे के टट्टू की तरह