पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(१४५)


प्रकाशित कर चुके। अब उन बातों को दुहराना वृथा पिसे को पीसना है। हाँ! यहाँ इतना अवश्य लिख देना चाहिए कि पंडित प्रियानाथ शिवपुरी में आकर शिवाराधन के रसा- स्वादन में मत्त हो जाने पर भी विष्णु का भूल जानेवाले नहीं। सांप्रदायिक मंदिरों में जाकर भगवद्दर्शन से अपने नेत्रों को तृप्त कारना उनका नित्य कर्म है।

नित्य की भाँति आज भी यह पंडिवायिन, गौड़बोले और बूढ़े, बुढ़िया और गोपीबल्लभ को लिए हुए दीनबंधु के साथ दर्शन करने के लिये गए हैं। संध्या आरती का समय है। दर्शनियों के ठठ्ठ पर ठठ्ठ जमे हुए हैं। कहीं लौकिक किटकिट हो रही है तो कहीं धर्म-चर्चा है। दर्शनों के लिये मार्ग प्रतीक्षा करने के लिये पंडितपार्टी में जाकर धर्मचर्चा ही की और आसन लिया। धर्मचर्चा भी ऐसी वैसी नहीं। भगवान् ने स्वयं देवर्षि नारद से एक बार कहा था --

"नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये च।

मद्भक्ता यत्र गाअंति तत्र तिष्ठामि नारद॥"

बस इस भगवद्वाक्य के अनुसार जहाँ समस्त वैष्णव, स्त्री पुरुष मिलकर एक स्वर से कभी पंचम, कभी मध्यम और कभी सप्तम स्वर से, जहाँ जिस स्वर की आवश्यकता हुई वहाँ उसी से, भक्तशिरोमणि सूरदासजी का राग द्वेश में यह पद गा रहे थे ये लोग भी उन्हीं के साथ गाने में संयुक्त हो गए। वह पद इस तरह था --

आ० हि० --