पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१५४

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में अनेक बार वे लोग खबर पा चुके हैं। अभी काशी ही में महात्मा तुलसीदासजी के आश्रम पर पाठकों ने इस युगुल जोड़ी को जो लीला देखी उसे अभी जुम्मा जुम्मा आठ दिन हुए हैं। हाँ! हमारे नवागत दीनबंधु के लिये यह समा एक- दम नवीन था। उन विचारे को परोपकार की उधेड़ बुन में दिन रात लगे रहने में इतना अवकाश ही कहाँ जो इस स्वर्ग- सुख का अनुभव कर सकें। दंपती की ऐसी दशा देखकर उनसे न रहा गया। वह बोली --

"वास्तव में सच्ची भक्ति का स्वरूप यही है। यही "कृष्णप्रेम से कृष्ण होने" का ज्वलंत उदाहरण है। भगवान् के गुणानुवाद का वर्णन करते हुए यदि प्रियानाथ भाई की तरह इष्ट मूर्ति का चित्र नयनों के सम्मुख न खड़ा हुआ तो स्तुति ही क्या? किंतु चित्र खड़ा करना सहज नहीं है। चित्र तब ही खड़ा हो सकता है जब सब झगड़ों को छोड़कर उसके चरणारविंदों में लौ लग जाय। लौ लगना अभ्यास से हो सकता है और उसका स्वरूप गद्गद हो जाना है।"

"हाँ महाराज, सत्य है। परंतु देखिए तो गोपियों का अटल प्रेम! वास्तव में यह प्रेम अलौकिक है। जो इस प्रेम को व्यभिचार कहते हैं ये झख मारते हैं। गोपियों के ऐसे प्रेम के आगे शुक सनकादि भी कोई चीज नहीं। बड़े बड़े ऋषि महर्षि जिनके चरणों पर लोटने को तैयार, भागवान् पार्वतीपति तक भी जिनमें संयुक्त होकर नृत्य करने से अपनी